शीर्षक: क्या ट्रंप के दबाव में आए भारत को झुकना चाहिए?


पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनकी प्रशासनिक टीम द्वारा एक बार फिर वैश्विक व्यापार जगत में हलचल मचाने की खबरें सामने आई हैं। वॉल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट के अनुसार, ट्रंप प्रशासन 70 से अधिक देशों के साथ बातचीत कर रहा है, ताकि वे चीन से दूरी बनाएं और इसके बदले उन्हें व्यापारिक टैरिफ में छूट दी जा सके। ऐसे में यह सवाल उठता है: क्या भारत को इस दबाव में आकर अमेरिका का साथ देना चाहिए?

इस योजना के तहत ट्रंप प्रशासन अपने व्यापारिक साझेदारों से यह उम्मीद कर रहा है कि वे चीनी जहाजों को अपने बंदरगाहों से रोकें, चीन की कंपनियों को अपने देश में व्यापार की अनुमति न दें, और सस्ते चीनी उत्पादों का अपने बाजार में प्रवाह बंद करें। इसका उद्देश्य चीन पर आर्थिक दबाव बनाना है ताकि वह बातचीत की मेज पर लौटे।

भारत के लिए यह एक अत्यंत संवेदनशील मुद्दा है। एक ओर अमेरिका भारत का रणनीतिक साझेदार है, वहीं दूसरी ओर चीन के साथ भारत के व्यापारिक संबंध भी गहरे हैं। चीन भारत का एक बड़ा व्यापारिक भागीदार है, जिससे आयात-निर्यात का बड़ा हिस्सा जुड़ा है।

अगर भारत अमेरिका की रणनीति का हिस्सा बनता है, तो इससे चीन के साथ संबंधों में खटास आ सकती है। इससे न केवल व्यापार प्रभावित होगा, बल्कि राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर पर भी तनाव उत्पन्न हो सकता है। खासकर बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) जैसे प्रोजेक्ट्स में भारत की भूमिका को लेकर भी सवाल खड़े हो सकते हैं।

वहीं दूसरी ओर, अमेरिकी छूट का प्रस्ताव लुभावना हो सकता है, विशेषकर भारतीय निर्यातकों के लिए जिन्हें अमेरिकी बाजार में पहुंचने में कठिनाई होती है। लेकिन क्या यह अल्पकालिक लाभ दीर्घकालिक नुकसान की भरपाई कर पाएगा?

भारत को इस पूरे परिदृश्य का मूल्यांकन सावधानीपूर्वक करना होगा। भारत की विदेश नीति की नींव "गुटनिरपेक्षता" और "स्वतंत्र कूटनीति" पर टिकी है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की पहचान एक संतुलित और स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में है।

भारत को किसी भी शक्ति के प्रभाव में आए बिना अपने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप निर्णय लेना चाहिए। अमेरिका और चीन के बीच चल रही प्रतिस्पर्धा में किसी एक का पक्ष लेना भारत की वैश्विक छवि को नुकसान पहुंचा सकता है।

इस परिस्थिति में भारत के लिए एक बेहतर रणनीति यह हो सकती है कि वह ASEAN देशों और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के अन्य राष्ट्रों के साथ बहुपक्षीय व्यापार संबंध मजबूत करे। इससे भारत की मोल-भाव की शक्ति बढ़ेगी और किसी एक पक्ष पर निर्भरता नहीं रहेगी।

इसके अलावा, भारत को अपने निर्यात और आयात को विविध बनाना चाहिए ताकि किसी एक देश पर अत्यधिक निर्भरता न हो। इससे वैश्विक अस्थिरता के समय देश की अर्थव्यवस्था सुरक्षित रह सकेगी।

ट्रंप जैसे नेता भविष्य में भी विभिन्न माध्यमों से दबाव बनाते रहेंगे, लेकिन भारत को किसी भी प्रकार की जल्दबाज़ी से बचना चाहिए। अल्पकालिक लाभ के लालच में दीर्घकालिक कूटनीतिक हानि नहीं उठाई जानी चाहिए।

भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसकी प्राथमिकता राष्ट्रीय हित और दीर्घकालिक स्थिरता हो। इसके लिए संतुलित और समझदारी भरी कूटनीति अत्यंत आवश्यक है।

भारत की सबसे बड़ी शक्ति उसकी "ब्रिज बिल्डर" छवि है — एक ऐसा राष्ट्र जो टकराव को नहीं, बल्कि संवाद को बढ़ावा देता है। भारत को अमेरिका या चीन की कठपुतली नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर शक्ति के रूप में आगे बढ़ना चाहिए।

इस दिशा में आत्मनिर्भर भारत का सपना महत्वपूर्ण हो जाता है। यदि भारत अपनी घरेलू उत्पादन क्षमताओं को मजबूत करता है, तो वह बाहरी दबावों के सामने मजबूती से खड़ा रह सकता है।

तकनीकी विकास, बुनियादी ढांचे में निवेश, और मानव संसाधन विकास ही वह स्तंभ हैं, जिन पर भारत का भविष्य टिका है। इन्हीं क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता से भारत वैश्विक मंच पर मजबूती से उभर सकता है।

इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत को ट्रंप के दबाव में आकर किसी भी एक पक्ष का समर्थन नहीं करना चाहिए। भारत की नीति राष्ट्रीय हित और संतुलित कूटनीति पर आधारित रहनी चाहिए।

जब तक भारत स्वतंत्र और निष्पक्ष नीति पर कायम रहेगा, तब तक वह वैश्विक बदलावों का सामना आत्मविश्वास के साथ कर सकेगा। यह समय विवेक से कदम उठाने का है, ताकि भारत वैश्विक अस्थिरता के बीच स्थायित्व का प्रतीक बन सके।

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